लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

289 पाठक हैं

प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

शक्ति, सामर्थ्य और सफलता


मनुष्य शक्ति, सामर्थ्य और सफलताका सिपाही है, अज्ञान एवं मोहवश होकर अपने-आपको दीन, हीन, शक्तिविहीन समझता है। अपनी दैवी शक्तियोंको विस्मृतकर कायरका जीवन व्यतीत करना कितनी बड़ी मूर्खता है। दीनावस्थामें जन्म लिया, अभाव और दुःखोंमें पलते-पनपते रहे और विषादमय जीवन व्यतीत करते हुए मृत्युको प्राप्त हो गये-ऐसा जीवन किस अर्थ? यह तो सृष्टिकर्ता आदि-पिता परमात्माका अपमान है।

परमेश्वर चाहते हैं कि मनुष्य अपनी गुप्त शक्ति, अगाध सामर्थ्य और सफलताको पहचानें और सामर्थ्यवान् जीवन व्यतीत करें, प्रतिष्ठित रहें, निरन्तर समुन्नत रहें। हम सबके लिये परमेश्वरने यश, ऐश्वर्य, मान, प्रतिष्ठाका बृहत् भण्डार इस विश्वके कोने-कोनेमें संचित कर रखा है। इन्हें हम योग्यता, ईमानदारी एवं परिश्रमसे प्राप्त करते हैं।

हमारी शक्तियोंका गुप्त केन्द्र हमारा अन्तर्मन है। हमारा मन सागरमें तैरते हुए आइस बर्ग (बर्फका पर्वत) की तरह है। जिस प्रकार आइस बर्गका आठवाँ भाग ऊपर सतहपर और शेष जलमग्न रहता है, उसी प्रकार मनुष्यकी कुछ ही शक्तियोंका विकास हो पाता है। हमारे मनके सात भाग अविकसित, निश्चेष्ट और आलस्यमें ही पड़े रहते है। हमारे गुप्त मनमें मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों एवं सामर्थ्योंका एक विशाल अंश विकासकी प्रतीक्षा और अवसर देखा करता है। हमारी गुप्त सामर्थ्य मनकी गुप्त कन्दराओंमें सुप्तावस्थामें निश्चेष्ट पड़ी जंग खाया करती है।

शक्ति और सामर्थ्यका गुप्त केन्द्र आपका गुप्त मन ही है। इसमें आपकी नाना गुप्त शक्तियों योग्यताएँ और प्रतिभाएँ संचित रहती हैं। दूसरे शब्दोंमें, आपकी चेतनताके गुप्त भागमें शक्तिका वह केन्द्र रहता है, जिसे अज्ञात चेतना (Subconscious and un-consicious) कहते हैं। इस केन्द्रस्थलमें अनेक

मनोभाव, विचार, कल्पनाएँ और अनुभूतियाँ एकत्रित रहती हैं। आपके संकल्प, मिथ्याविश्वास, भावनाएँ चुपचाप आपके जाग्रत् जीवनके कार्य-व्यापारको क्षण-क्षण प्रभावित किया करते हैं। इस केन्द्रके स्वास्थ्य, समुचित विकास और संतुलनपर आपकी सफलता निर्भर है। अज्ञात चेतनासे कार्य लेनेवाला आपका गुप्त मन जाग्रत् मनकी अपेक्षा अधिक सशक्त, जागरूक और सचेत है। तुच्छ-से-तुच्छ, हल्की-सें-हल्की, छोटी-छोटी अनुभूतियाँ इसमें एकत्रित रहती हैं। दिन-रातके चौबीसों घंटे अन्तश्चेतनाका गुप्त व्यापार (Action) चला करता है। अज्ञात चेतनाका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है।

एक महात्माने अन्तश्चेतनाकी शक्ति और सामर्थ्यकी ओर संकेत करते हुए लिखा है, 'मेरे हृदयमें किसी अज्ञात देव-शक्तिका निवास है। वह मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।'

आपके लिये श्रेयस्कर यही है कि आप अपने गुप्त मनकी असंख्य शक्तियोंपर विश्वासकर जीवनमें प्रविष्ट हों। गुप्त मनसे ही शक्ति-सामर्थ्यका स्रोत फूट निकलेगा, आपकी व्यक्तिगत शक्तियोंका विकास होगा-ऐसा मानकर चलें। गुप्त मनके विकासका श्रेष्ठतम मनोवैज्ञानिक नियम सूचना या सजेशन (Suggestion and Auto-Suggestion) है। जो गुण, जो मानसिक, शारीरिक या बौद्धिक भावनात्मक शक्तियाँ आपको इष्ट हों, उन्हें दृढ़तापूर्वक गुप्त मनमें दुहराइये, चेतनाके स्तरपर रखिये, उन्हींमें रमण कीजिये। सूचनानुगामिता अर्थात् दिये हुए सजेशनोंके अनुसार कार्य करना आपके गुप्त मनका गुण है। संकेतोंकी दृढ़तासे पुनरावृत्ति कर आप स्वस्थ, विजयी, सामर्थ्यपूर्ण अन्तर्मनका निर्माण कर सकते हैं। अच्छी आत्मप्रेरणाएँ जब दृढ़तासे चेतनाके स्तरपर लायी जाती हैं, तब उनसे नवीन सामर्थ्योंका निर्माण होता है।

डा. गणपुलेका विचार है कि 'अन्तर्मनकी सूचनानुगामिताकी कोई सीमा नहीं है। इसी नींवपर मानसोपचारकी इमारत खड़ी की जा सकती है। अन्तर्मन यदि सूचनानुगामी न होता तो मानसोपचार शायद ही सम्भव हो सकता।' जो बात रोगोंके लिये सत्य है, वही शक्ति-सामर्थ्य-वृद्धिके लिये और भी सत्य है। यदि हम गुप्त मनको शक्ति-सामर्थ्यकी सूचनाओं (Suggestion) में ओतप्रोत रखें और दृढ़तापूर्वक उनमें विश्वास करें तो आन्तरिक शक्तिके केन्द्रोंको जाग्रत् कर सकते हैं। हमारे यहाँ कीर्तन, मनन, चिन्तन एवं अखण्ड जाप संकेत-विधियाँ ही हैं अखण्ड-कीर्तन, पठन, भजन, पूजन इत्यादिसे हमारे गुप्त मनकी शुभ-सात्त्विक शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं। यदि हम अन्तर्मनको शक्ति-सामर्थ्यकी शुभ सूचनाएँ देना प्रारम्भ कर दें तो धीरे-धीरे वह उन्हें ग्रहण करने लगेगा और तदनुकूल उसका निर्माण हो जायगा। व्यक्तिमात्रको इसी महान् शक्तिकेन्द्रके शोधनद्वारा आन्तरिक सामर्थ्योंकी अभिवृद्धि करनी चाहिये।

विश्वास कीजिये, आपके भीतर ऐसी-ऐसी विशेषताएँ और गुप्त शक्तियाँ भरी पड़ी हैं कि उनके विकास एवं प्रदर्शनसे आप संसारको चमत्कृत कर सकते हैं। आपकी एक मौलिकता है, अपने व्यक्तित्वका अपना ही महत्त्व है। ये विशेषताएँ विशेषरूपसे आपको ही दी गयी हैं। अपनी रुचि, स्वभाव और चरित्रका अध्ययन कीजिये। अर्थात् अपनी विशेषता मालूम कीजिये-यही अग्रसर होनेकी आधारशिला है। विश्वका प्रत्येक पुरुष, बालक, स्त्री, यहाँतक कि जानवरतक एक निजी विशेषता लेकर पृथ्वीतलपर आया है। परमेश्वरने अन्य शक्तियाँ तो सामान्यरूपमें ही प्रदान की हैं, किंतु प्रत्येक व्यक्तिमें एक विशिष्टता (Strong point), एक महत्ता, एक खास तत्त्व अन्य तत्त्वोंकी अपेक्षा तीव्रतर है। जब कोई मनुष्य अपनी इस विशेषताको जान जाता है और निरन्तर उसीके विकासमें अग्रसर होता है, तब उस विशेष दिशामें वह सर्वाधिक उत्कृष्टताका उपार्जन करता है। उच्चतम स्थान सदा रिक्त रहता है। योग्यतम व्यक्तिके लिये हमेशा गुंजाइश रहती है।

क्या आपने कभी अपनी विशेषताएँ अपनी प्रतिभा (Talents) को जाननेकी चेष्टा की है? क्या आपने आत्मनिरीक्षण किया है? प्रत्येक प्रगतिशील व्यक्ति अपने-आपको तर्ककी कसौटीपर कसकर इस महान् सत्यका साक्षात्कार कर सकता है। आप व्यापक दृष्टिसे अपने व्यक्तित्व, गुणों और विशेषताओंका अध्ययन करें और अपने मुख्य गुणका विकास प्रारम्भ करें। आत्मनिरीक्षण वह साधन है, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने चरित्रको समझनेका प्रयत्न कर सकता है।

आत्मनिरीक्षणमें शान्त चित्त और स्थिर बुद्धिं रखिये। इससे नीर-क्षीर-विवेकमे सहायता प्राप्त होती है। आवेश, उद्वेग और जल्दबाजीमें फँसे हुए व्यक्ति प्रायः शान्तचित्त हो अपने व्यक्तित्वका अध्ययन नहीं कर पाते। वे उद्विग्न रहकर नीर-क्षीरको पृथक् करनेवाले विवेकसे सहायता नहीं ले सकते। कुछ व्यक्ति विचारों या धर्म, मत इत्यादिकी संकीर्णता तथा पाण्डित्यके मिथ्या दम्भमें अपने आत्माको इतना जकड़ लेते हैं कि विवेकका सच्चा प्रकाश उनमें नहीं हो पाता। संकीर्णता, परदोषदर्शन, अहंकार, दम्भ उनके विवेकको पंगु कर देते हैं। ज्ञानका मुक्त प्रभाव अवरुद्ध हो जाता है। उनकी वाणी तेजहीन और निस्सार हों जाती है।

मानसिक आलस्य (अर्थात् हानिकर मिथ्या विश्वासोंमें आबद्ध रहना, दकियानूसी विचार रखना) की घृणित गुदड़ी उतार फेंको और सत्यके व्यापक रूपको अनुभव करनेके लिये विवेकद्वारा रूढ़ियोंसे ऊपर उठो। स्वयं अपनी ओरसे मौलिक विचारधारामें संलग्न हो जाओ। जो व्यक्ति अपनी ओरसे प्रत्येक विषय एवं परिस्थितिपर विचार कर सकता है, वह समस्याका हल अवश्य निकाल लेता है।

आत्मनिरीक्षणसे मनका विकार दूर होता है और सत्यका प्रकाश प्रकट होता है। अपनी त्रुटियां ज्ञात होती हैं तथा सही मार्गपर आरूढ़ होनेके लिये आत्मिक बल प्राप्त होता है।

शान्तचित्त हो नेत्र मूँदकर किसी शान्त स्थानपर बैठ जाओ, शरीर और मनको शिथिल कर लो और सब सांसारिक विचारोंको हटाकर केवल 'आत्मनिरीक्षण' की भावनापर चित्तवृत्तियोंको एकाग्र करो। एक-एक कर अपने सम्पूर्ण दिन, सप्ताह, मास, वर्ष, जीवनके कार्योंकी आलोचना करो। जो कार्य तुम्हारे आदर्शोंसे गिरे, उनके प्रति ग्लानि, तथा जो कसौटीपर खरे उतरें, उनके प्रति संतोष प्रकट करो। इस अन्तर्दृष्टिसे मनमें हलके कार्य स्वतः दूर होने लगेंगे और मन स्थायी महत्त्वके कार्योंमें ही रमण करेगा।

उज्ज्वल भविष्यके लिये मनमें नयी-नयी कल्पनाओंके सुमधुर स्वप्न भरे-पूरे रखिये, 'मैं अपना जीवन सफल, सुखद, प्रेममय रखूँगा। मैं संसारमें आशा, उत्साह, बल, सुख-शान्तिकी अभिवृद्धि करूँगा। चित्रकारी, संगीत, काव्य, विद्या द्वारा संसारमें आनन्द उत्पन्न करूँगा। स्वयं मेरा तथा मेरे सम्पर्कमें आनेवाले अन्य व्यक्तियोंका जीवन सुख-शान्तिमय होगा।' आदि विचार एवं प्रेरक कल्पनाएँ मनमें जाग्रत् रखनेसे हमारा गुप्त मन इन्हीं मानसिक दशाओंमें चलता है। वस्तुतः मानसिक समृद्धिके लिये ऐसी उत्तम प्रेरणाएँ अति आवश्यक हैं।

ध्यानपूर्वक आत्मध्वनिको सुनते और तदनुसार कार्य करते चलिये। आत्मध्वनि पुष्ट, स्वस्थ और कल्याणकारी मार्गद्रष्टा है। उसका अनुसरण कर कार्य करने से अकल्याणकारी विचारों और दूषित कल्पनाओंसे मुक्ति प्राप्त होती है। सौ चक्षुओंवाले (Argus) की भांति यह आवश्यक है कि आप मनकी प्रत्येक क्रियाका सूक्ष्म निरीक्षण करते और विरोधी घृणित विचारोंका तिरस्कार करते रहें। चित्तके प्रलोभनके साथ न प्रवाहित हो जायँ वरं उससे पृथक् होकर मनके द्रष्टा बनें। क्रमशः मनका व्यापार देखते-देखतें और उसपर नियन्त्रण करते-करते आप तुरीयावस्थामें प्रविष्ट हो जायँगे। यही अभ्यास राजयोगकी सर्वोच्च समाधि है। जो साधक चित्तका निरीक्षण और नियन्त्रण कर मनोव्यापारको सही दिशामें रखनेका अभ्यास कर लेता है, उसने मानो साधनाकी पहली मंजिल पार कर ली है।

जीवनमें किसी निश्चित उद्देश्यकी रचना कीजिये। यह पर्याप्त सोच-विचारका विषय है। अधूरे सोच-विचारका दुष्परिणाम उद्देश्यको पुनः-पुनः छोड़ना होता है। फिर साधक किसी भी दिशामें आगे नहीं बढ़ पाता। अतः मित्रोंसे, विशेषज्ञों तथा स्वयं अपने अन्तर्मनसे विचार-विमर्श कर अपने जीवनोद्देश्यका निर्णय कीजिये और फिर पूर्ण श्रद्धासे उसकी प्राप्तिमें संलग्न हो जाइये।

श्रद्धा या आत्मविश्वास आपकी महत्त्वपूर्ण शक्ति है। जिन-जिन तत्त्वोंमें आपकी श्रद्धा है, वे आपको अवश्यमेव प्राप्त होनेवाले हैं। श्रद्धा आपकी सभी शक्तियोंके मूलमें रहनेवाली सार-स्वरूप है। प्रत्येक कार्य इसीके द्वारा सम्पन्न होता है। विश्वके सब सामर्थ्यवान् व्यक्ति इसी दिव्य शक्तिके बलपर जीवन-युद्धमें विजयी हुए हैं। यह आपके व्यक्तित्वमें पर्याप्त मात्रामें मौजूद है। इसे जाग्रत्भर करना है।

'मैं निर्विघ्न आगे बढ़ सकता हूँ। शक्ति और सामर्थ्य मुझमें प्रचुरतासे विद्यमान हैं। मैं साधारण कार्योंमें अपनी मौलिकता प्रकट करता हूँ और पूरे जोरसे कार्य करता हूँ। सफलता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।'-जब मनुष्य इन संकेतोंमें पूर्ण विश्वाससे अग्रसर होता है, तब आत्मश्रद्धाकी दिव्य शक्ति उसमें धीरे-धीरे स्वतः प्रकट होती है।

विश्वास कीजिये कि आप शक्तिमान् है। विश्वास कीजिये कि अतुलित सामर्थ्योंका भंडार आपमें प्रचुरतासे भरा पड़ा है। विश्वास कीजिये कि आप जिस क्षेत्रमें चलेंगे, सफलता लेकर रहेंगे। विश्वास कीजिये कि आप अपनी सम्पूर्ण शक्ति एक ध्येयकी प्राप्तिमें एकाग्र कर देंगे। सच्चे धैर्य और लगनसे उसपर डटे रहेंगे। सत्य संकल्पसे अग्रसर होते रहेंगे। सत्यके प्रकाशमय रूपको देखेंगे। मनःशक्तिको अपनी शक्तियोंपर केन्द्रित रखनेसे आत्मश्रद्धाकी वृद्धि होती है।

जिस क्षण मनुष्यको अपनी शक्तियों, गुप्त सामर्थ्यों, गुप्त ज्ञानका विश्वास हो गया, उसी क्षणसे वह जीवन-जागृतिका एक नया पृष्ठ खोलता है। इस जागरण (Awakening) को सब धर्मोंसे उच्च समझिये। इसमें गहरी सत्यता निहित है। इस आत्मश्रद्धाके दिव्य बलको अनुभव कीजिये और अपने लक्ष्य, क्षेत्र या कार्यमें लगाइये। आपको नवीनता और सामर्थ्यका अनुभव होगा। स्मरण रखिये, श्रद्धा आपके आत्माका एक प्रमुख अंश है। मनुष्यकी सब सिद्धियाँ श्रद्धाके अनुपातमें ही प्राप्त होती हैं।

अनुभूत नियम है-'प्रत्येकको उसकी आत्मश्रद्धा, उसके आत्मविश्वासके अनुसार ही प्राप्त होती है।'-यही महानियम मनोवाच्छित वस्तु (सफलता) का निर्णय करता है। जितनी श्रद्धा, उतनी बल-बुद्धि, शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होता है।

हम निरन्तर इस असीम शक्तिमय जगत्में आत्मश्रद्धाके अनुसार क्रीड़ा कर रहे हैं। हमारा जीवन-प्राण और सफलता हमें अपने विश्वासों और प्रयत्नोंके अनुसार प्राप्त हो रहा है। विघ्नोंके कारण जो आत्मश्रद्धा लुप्त हो चुकी है, उसे प्राप्त करनेमें सतत प्रयत्नशील रहिये। संशय, भय, कायरताका शिरश्छेद कीजिये। दृढ़ निश्चय, तीव्र इच्छा और प्रबल प्रयत्नद्वारा अपनी गुप्त सामर्थ्यको प्रकट कीजिये। शक्ति, सामर्थ्य और सफलता आपकी होकर रहेगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book